‘लोककवि रामचरन गुप्त’ की लोकशैली में 5 ‘ मल्हार '
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|| गोरे न मानें ||
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सावन मांगै खूं अंग्रेज को जी
एजी लेउ कर मैं तुम तलवार।
गोरे न मानें लूटें मेरे देश कूं जी
एजी जिय निकले सब मक्कार।
डायर मारौ बहिना भइया भगत ने जी
एरी ऐसे भइया पै आवै बस प्यार।
रामचरन गाऔ अब ऐसे गीत रे
एरे जिनमें नागन की हो फुंकार।
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+लोककवि रामचरन गुप्त
।। लडि़ रहे वीर ।।
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सावन आयौ, लायौ हमला
चीन कौ जी
एजी सीमा पै लडि़ रहे वीर।
हारि न जावें, न भागें रण
छोडि़ के जी
एजी वीरन कूं बध्इयो ध्ीर।
बादल छाये कारे कारे तौप के जी
एजी दुर्गन्धें भरी है समीर।
रामचरन कूँ कायर मति जानियो रे
ऐरे तोकू मारें तकि-तकि तीर।
।। झूला लेउ डार ।।
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सावन आयौ, न आये मनमोहना
जी
एजी बिन कान्हा, झूला को झुलाय?
ऐसौ निर्माही न देखो हमने देश में जी
एजी जाकू ब्रज की सुध हू न आय।
कारै बदरा सौ कान्हाजी कौ प्रेम जी
एजी जो नेह कौ जल न गिराय।
रामचरन रहि रूंआसी रानी राधिका जी
एजी वंशी की धुन को सुनाय?
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+लोककवि रामचरन गुप्त
।। छायौ अंधियार।।
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सावन सूनौ नेहरू बिन है गयौ जी
एजी कीकर-सी लगत बहार।
बीच भंवर में छोड़ी नैया देश की जी
ऐजी दुश्मन की चलत कटार।
झूला को झुलाये आजादी कौ बहिन री
एजी गये नेहरू गये स्वर्ग सिधार।
रामचरन कौ बहिना मेरी मन दुखी जी
एजी चहुंतरफा छायौ अंधियार।
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+लोककवि रामचरन गुप्त
|| एजी हम सब हैं एक समान ||
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कारे-कारे बदरा छाये छुआछूत
के जी
एजी आऔ हिलमिल झूला लेउ डार।
कोई नहिं ऊंचौ नीचौ नहिं कोई है जी
एजी हम सब हैं एक समान।
झूला झूले संग संग छोडि़ भेदभाव कूं जी
एजी अब सब कूं लम्बे झोटा देउ।
सावन समता कौ आये मेरे देश में जी
एजी रामचरन कौ नाचे मन-मोर।
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+लोककवि रामचरन गुप्त
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