Thursday, March 24, 2016

लोककवि रामचरन गुप्त के चर्चित 6 रसिया




लोककवि रामचरन गुप्त के चर्चित 6 रसिया 
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|| फोरै झट मटका ||----1.
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मैया मारग में मिलै हमकूं कृष्ण मुरारि
कुंज-कुंज की ओट में ग्वाल रहें दो चारि

लूटें माखन खावें
नाचें संग में ठेंग दिखावें
कंस की दासी हमें बतावें
फोरें झट मटका।

विनती करें मनावें
हम सब पइयन में पडि़ जावें
हमकूं कान्हा रोज रुलावें
करि पटकी-पटका।

हम समझावत हारे
पर नहिं मानें लाल तुम्हारे
मैया फूटे भाग हमारे
करि हल झंझट का।

हमरी होत तबाही
बाजै घर में रोज लड़ाई
मैया कैसी आफत आई
दधि का फोकट का ?

दधि कूं बेचें मइया
तब कहुं आवें तनिक रुपइया
डूबी जाय हमारी नइया
रोज क्षय दधि-घट का।

छोड़े गांव तिहारौ
मैया अब नहिं होय गुजारौ
निसदिन को नुक्सान हमारौ
उमर भर कौ खटका।

मानों रामचरन की
आदत गन्दी मनमोहन की
मति सीधी करि देऊ मैया
पेड़ पै दै लटका।
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+लोक कवि रामचरन गुप्त



|| को फिर  का कौ चाचा-ताऊ ||-----2.  
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लक्ष्य तुम्हारे सामने लेउ धनुष कूँ तान।
युद्ध  भूमि में युद्ध  ही लड़ना नेक विधान।

धीर तुम धारौ निज मन।
क्या दुःशासन क्या दुर्योध  
मानवता-ममता के दुश्मन
अर्जुन सारे हैं।

उर करुणा नहिं का
को फिर  का कौ चाचा-ता  
ये रिश्ते घरबार बिका
अर्जुन सारे हैं।
रामचरन की मानौ
जल्दी धनुष वाण कूं तानौ
अर्जुन खड़े युद्ध  में जानो
शत्रु  तुम्हारे हैं।
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+लोक कवि रामचरन गुप्त



।। करै न इज्जत कोय ।।-----3.
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मैं सखि निर्धन  का भयी करे न इज्जत कोय
बुरी नजर से देखतौ हर कोई अब मोय।

कैसौ देश निगोरा
तकै मेरी अंगिया कौ डोरा
मोते कहत तनक से छोरा
चल री कुंजन में।

हम का जानें होरी
पास गुलाल अबीर न रोरी
आयी निकट न खुशी निगोरी
अपने जीवन में।

दुख की लाद गठरिया
अब तो दुल्लर भयी कमरिया
रामचरन चुकि गयी उमरिया
बस संघर्षन में।
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+लोक कवि रामचरन गुप्त



।। चक्रव्यूह दरम्यान।।----4.
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बंसी बारे मोहना नंदनदन गोपाल
मधुसूदन माधव सुनौ विनती मम नंदलाल।

आकर कृष्ण मुरारी,
नैया करि देउ पार हमारी
मीरा-गणिका तुमने तारी,
कीर पड़ावत में।

चक्रव्यूह दरम्यान,
राखे कौरवदल के मान
अर्जुन कौ हरि लीनौ ज्ञान
तीर चढ़ावत में।

वस्त्र-पहाड़ लगायौ,
कौरवदल कछु समझि न पायौ
हारी भुजा अंत नहिं आयौ
चीर बढ़ावत में।

भारई की सुन टेर,
गज-घंटा झट दीनौ गेर
रामचरन प्रभु करी न देर,
वीर अड़ावत में।
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+लोक कवि रामचरन गुप्त



।। प्रभु के गुन गाऔ।।----5.
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भूखौ प्रभु कौ शेर है देउ पुत्र कूं फार
रानी सत के मत डिगौ तनिक न करौ अबार।

मति मन में घबराऔ,
रानी आंसू नहीं बहाऔ
मोरध्वज की बात बनाऔ
आरौ ले आयौ।

दर पै मुनिवर ज्ञानी
भूखी शेर बहुत है रानी
हमकूं कुल की आनि निभानी
आन तुम चित लाऔ।

रीत सदा चलि आयी
जायें प्राण, वचन नहीं जायी
करवाओ मति जगत हंसाई
सुत कूं चिरवाऔ।

तुरत चलायौ आरौ
खूं कौ फूटि परौ फब्बारौ
मोरध्वज तब वचन उचारौ
भोजन प्रभु पाऔ।

मनमोहन मुस्काये
मृत सुत तन में प्राण बसाये
रामचरन कवि अति हरषाये
प्रभु के गुन गाऔ।
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+लोक कवि रामचरन गुप्त



।। जादू है प्रभु इन चरनन में।।---6.
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श्री राम चन्द्र सीता सहित खड़े शेष अवतार
केवट से कहने लगे सरयू पार उतार।।

जल में नाव न डारूं
नैया बीच न यूं बैठारूं
भगवन् पहले चरण पखारूं
करूं तब पार प्रभू।

आज्ञा होय तुम्हारी
तौ मैं तुरत करूं तैयारी
मन की मैंटू शंका सारी
चरण पखार प्रभू।

शंका भारी मन में
जादू है प्रभु इन चरनन में
रज छू उडि़ अहिल्या छन में
पिछली बार प्रभू।।

ये ही काठ कठैया
मेरे घर की पार लगैया
रज छू अगर उड़ गई नैया
लूटै घरबार प्रभू।।

केवट पुनः विचारौ
मोते पाप है गयौ भारौ
जा रज ने कितनैन कूं तारौ
तारनहार प्रभू।।

तुरतहिं चरण पखारे
भगवन नैया में बैठारे
केवट पहुंची दूज किनारे
दिये उतार प्रभू।।

देन लगे उतराई
केवट के मन बात न भायी
केवट बोल्यौ जिय उतराई
रही उधार प्रभू।

आगे वचन उचारे
तुम हो सबके तारनहारे
जब मैं आऊँ पास तुम्हारे
देना तार प्रभु।।
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+लोक कवि रामचरन गुप्त’ 

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