Thursday, March 24, 2016

‘लोककवि रामचरन गुप्त’ के चर्चित ‘ जिकड़ी भजन ’




लोककवि रामचरन गुप्तके चर्चित ‘ जिकड़ी भजन ’
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ए दीनन पति दीन दयाला 
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जिला अलीगढ़ के बेरनी गांव के फूलडोल [ग्रामीण कवि सम्मेलन] के लिए लोक कवि रामचरन गुप्त द्वारा लाई करते हुए [खेत काटते हुए] रचा गया एक ऐसा जिकड़ी भजन जो फूलडोल में आयी 36 मंडलियों के 36 कवियों के मध्य गाया गया और अकाट्य भी रहा। इसी भजन पर प्रथम पुरस्कार भी मिला। दुर्भाग्यवश यही कवि की अन्तिम कविता भी बनकर रह गयी।

| 'लोककवि रामचरन गुप्त ' का ' जिकड़ी भजन ' –1. ‘
मुख्य टेक – ‘ दीनन पति दीन दयाला ‘
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मेरी तरनी कूं तारौ तारनहार ऐ फंसि गयी भव सागर भंवर में।।
मोहन मदन मुकुन्द महेश्वर मोक्ष मुरारी
आदि अजित असुरारि अनामय अनघ  अघारी
अजर अमर अखिलेश
सत्य सच्चिदानंद स्वयंभू  शिवशंकर शेष सुरेश
व्यापक विष्णु विशुद्ध विश्वम्भर वरुण विधाता
नारायण नव नित्य निरंजन नट निर्माता
 ए दीनन पति दीन दयाला

।। निरखत नीर नयन नरसी के।।
भूषण भरि भंडार भक्त-भय भंजनभरने भात चले
सुरपति सारथ साज-साज सजि सब सुरपुर से साथ चले
सो गावत ग्रहिणी गीत गांव की गहि ग्रह कूं गज पाला
ए दीनन पति दीन दयाला

।। पंडित परम पुनीत प्रेम के ।।
दुर्बल दशा दीनता देखी दुखित द्वारिकाधीश भये
दारुण दुःख दुःसहता दुर्दिन दलन दयालू द्रवित भले
सो सत्य सनेही संग सुदामा के श्री श्याम सुपाला
ए दीनन पति दीन दयाला

।। पांचाली पट पकरि प्रसारौ ।।
दुष्ट दुःशासन द्रुयोधन दुख द्रोपद को दीने भारे
महारथी महाभारत में भरवाय महीप मही डारे
सो पंथ प्रदर्शक प्रिय पारथ के पंड-पुत्र प्रण पाला
ए दीनन पति दीन दयाला

श्रोता समझ लो पूछ लो गहि ग्रन्थ कर में लीजिए
परिभाष कर मम भजन कौ उत्तर सही दे दीजिए
बतलाइये कितने हैं  श्रेणी गुणा करो श्रीमान
आकर सभापति के निकट दर्शाइये गुणवान
है कितने भाव गिनाओ, मम प्रश्न तनिक सुलझाओ
कवि रामचरन हर्षाते, गुरु-चरनन शीश नबाते
मंडल ने वाद्य बजाया, डोरी शर्मा ने गाया।
सो करियो कृपा कृपानिधि कान्हा कमलाकंत कृपाला
ए दीनन पति दीन दयाला।
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+लोककवि रामचरन गुप्त 




लोककवि रामचरन गुप्त ' का ' जिकड़ी भजन ' -2
मुख्य टेक –‘ ए क्वारी रही जनकदुलारी ’
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हे प्रभु जगदाधार चरण तुम शीश नवाऊँ 
मोय देउ ज्ञान कौ दान, सदा गुण तुम्हरे गाऊँ ।
मोहि समझौ अपनौ दास
सकल सभा के बीच में
मैं गाथा रह्यौ  सुनाय-
सो जनक कही टूटौ नाय धनुआ
हारि गये सब बलधारी
ए कुंआरी रही जनक दुलारी।।

--मर्म वचन बोले मिथिलेशा--
वीर विहीन भयौ भूमंडल जान लयी मैं जान लयी
वैदेही कौ ब्याह रच्यौ ना विधिना-गति पहचान लयी
निज-निज ग्रह नृप जाऔ सब, मानौ कहन हमारी
कुंआरी रही जनक दुलारी।

--हंसि बोले रघुवंश कुमारा--
धनु के कहा मही के टुकड़े-टुकड़े करि डालूं पल में
और भूमि को खंडित करि कें पहुंचा दऊँ रसातल में
दौड़ूं लै सौ योजन चापा, आज्ञा मिलै तुम्हारी,
कुंआरी रही जनक दुलारी।

--गुरु आयुष ले लीनौ है--
शिव कौ धनुष उठाकर कर में
खण्ड-खण्ड करि दीनौ है

लखि पौरुष तब राम कौ हर्षित 'जनक' अपार
वैदेही ने राम के माल दई गल डार।
जब राम माल गल डारी, सीता मन कहा बिचारी?
सुधिजन ग्रंथ उठाऔ, इस गुत्थी को सुलझाऔ
अब रामचरन की बात से परखें बुद्धि तुम्हारी
कुंआरी नाहिं जनक दुलारी।।
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+लोककवि रामचरन गुप्त 



'लोककवि रामचरन गुप्त ' का ' जिकड़ी भजन '—3.
मुख्य टेक – ‘ सिय हिय बिन अधिक कलेशा ‘
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श्रीरामचन्द्र ने कहा अनुज सुन कथा अनेका
भक्ति और वैराग्य न्याय नृप नीति विवेका।

वर्षा रितु गयी आय
घन घमण्ड गरजत नभ मन्डल
मोय सिया बिन कछू न सुहाय।

चपला चमकि रही रहि-रहि कें
दामिनि दमकि रही रहि-रहि कें
खल की प्रीति न थिरि रहै।

तरु वल्लभ वृक्षन छाये
सादिक कर सिद्धि सिहाये
बिन पाइक अर्क समाजा
खल उद्यम, गयौ सुराजा
टर्र-टर्र सब दादुर बोलें
जिम वेद पढ़े बट टोलें

छोटी-छोटी नदी बहें
बहि-बहि कें अति इतराय रहीं
पथ विहीन करि पथिकजनौ को
मन अपने हरषाय रहीं
जैसे लघुजन मिलें द्रव्यमन
समझे भये सुरेशा |
सिय हिय बिन अधिक कलेशा |
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+लोककवि रामचरन गुप्त 



'लोककवि रामचरन गुप्त ' का ' जिकड़ी भजन '---4.
मुख्य टेक- ‘ सोचौ कहां भीम समानौ ?
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अहि ने पूछे प्रश्न, भीम से ज्वाब न आयौ
नृप ने का छल करो भीम जल भरन पठाऔ

मौते अटकै बेईमान, उत्तर पूछे प्रश्न कौ
सोचि अब कैसे बचें प्रान?

कैसें बचें प्रान भीम घट में धरि लीनौ
बैठि उदर के बीच भ्रात कूं सपनों दीनौ
‘मैं लयौ नाग ने खाय,
भइया मेरे आनि के मोकूं लेउ बचाय।’

नृप मन में चिन्ता भारी
लौटौ नाय भीम गदाधरी
सोचै कहां भीम समानौ?

तब अर्जुन गांडीव सम्हारौ
आज्ञा पाय युधिष्ठर की झट
ढ़ूँढ़न निकलि परयौ वीरा
मारग में यह सोच-सोच
खोन लग्यौ अपनौ धीरा

ढूढ़ूं कहां, कहां मैं ढूढ़ूं
कठिन भ्रात कूं पानौ
सोचौ कहां भीम समानौ?

ताई बखत नाग फुंकारौ
कैसे आयो बोलि कहा तेरी मति मारी
का चिन्ता है तोय बता मोकू धनुधारी

आज्ञा मान हमारी झटपट अपनौ नाम बताय दै रे
और कौन-सौ धाम मेरे तू प्रश्नन कूं सुलझाय दै रे
सो खुलि गये मेरे भाग मिलौ मौकूं घर खानौ
सोचौ कहाँ भीम समानौ?

जा पै ज्वाब दयौ अर्जुन ने-
मति गर्वाबै ओ मणिधरी तोय न जीवन की आशा
मैं मारूं सागर वाण होय तेरौ नाशा
तू गयौ तात कूं खाय, मगन है बैठौ
सुन अर्जुन की बात नाग मन ही मन ऐठौ
देखि नाग कौ रूप तुरत ही अर्जुन बहुत रिसानौ
सोचौ कहां भीम समानौ?
सोचौ  कहां भीम समानौ?

चर्चा और सुनौ आगे की-
दौरि परौ मुख फारि नाग रे
अर्जुन तुरन्त लियौ घट में
और कही तब नाग
आज तू आय गयौ मेरे बट में।
सो रामचरन की बात कूं
सब सज्जन चित लाय
उत्तर हमकूं दीजिये
अपने ग्रन्थ उठाय
खायौ अर्जुन सौ धनुधारी कैसे लगै ठिकानौ?
सोचै कहां भीम समानौ?
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+लोककवि रामचरन गुप्त 



'लोककवि रामचरन गुप्त ' का अधूरा  ' जिकड़ी भजन '—5.
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अगणित दल संग लयौ है
जो नृप पकरि लेई घोड़ा कूं
तासे अर्जुन युद्ध करै।

जय पावै बढ़ै अगारी कूं
सौ मणिपुर की सीमा में
अब वो घोड़ा पहुंचि गयौ है
पत्री एक बंधी सरमस्तक
खोलि कें मंत्री जब बांची, बांचत ही थर्रायौ है
कुंअर बब्रावाहन कूं तब मंत्री ने समझायौ है-
लाये पकरि कौन को घोड़ा
करि तुम जुलम दयौ है
अगणित दल संग लयौ है।

' घोड़ा लै कें मिलौ पिता के दर्शन पाऔ
लेउ मुआफ कुसूर कराय '
ऐसी सम्मति सचिव की

गयी समझि कुंअर कूं आय।
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+लोककवि रामचरन गुप्त 

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