Monday, March 14, 2016

लोककवि रामचरन गुप्त की स्मृति में उनके पुत्र रमेशराज द्वारा लिखी कविताएं




















लोककवि रामचरन गुप्त की स्मृति में उनके पुत्र रमेशराज द्वारा लिखी कविता---1.
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बिन तुम्हारे जि़न्दगी का कैसे खालीपन भरे?
घुप अंधेरे  पर प्रभा के कौन हस्ताक्षर करे?

सूख जाते हैं समूचे वन के वन इस दौर में
शाख से लेकर तने तक तुम मिले हर पल हरे।

रह गया है हमने माना खोटे सिक्कों का चलन
तुम रहे हर कोण से पर सोलहों आना खरे।

रूह से लेकर बदन तक किस तरह छीला तुम्हें?
अब भले निर्दोष बनने को बनें कुछ उस्तरे।

हो सके तो लौट आना तुम कभी घी की तरह
बातियों के संग जहां पर प्रेम के दीपक धरे


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लोककवि रामचरन गुप्त की स्मृति में उनके पुत्र रमेशराज द्वारा लिखी कविता--2.
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जख्मेतर में, चश्मेतर में आज भी जि़न्दा हो तुम
यातना के इस सफर में आज भी जि़न्दा हो तुम।

एक साहस की कथा-सा कर रहा महसूस मैं
मन के भीतर छाये डर में आज भी ज़िंदा हो तुम।

मैं नहीं हूं दूर तुमसे मेरी कविताओं के नूर
लेखनी के हर हुनर में आज भी ज़िंदा हो तुम।

मेरे कांधों पर है कांवर और दिल में तीर है
मैं श्रवण हूं, मेरे स्वर में आज भी जि़ंदा हो तुम।



+लोककवि रामचरन गुप्त की स्मृति में उनके पुत्र रमेशराज द्वारा लिखी कविता……3
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उड़ न पाऊँगा मैं बन बादल तुम्हारी ही तरह
मैं परिन्दे-सा हुआ घायल तुम्हारी ही तरह।

मैं भले ही गांव-सा चेहरा लिये जि़न्दा रहूं
पर पुकारा जाऊँगा जंगल तुम्हारी ही तरह।

है जरूरी घर के भीतर हों किबाड़ें-खिड़कियां
लोग मुझको पायेंगे सांकल तुम्हारी ही तरह।

मैं न ऋण की कोई संख्या, भाग से मैं दूर हूं
हर तरह से हूं गुणा का फल तुम्हारी ही तरह।

वक़्त मुझको दे भले ही टाट या फिर चीथड़े
वक़्त को दे जाऊँगा मखमल तुम्हारी ही तरह।


लोककवि रामचरन गुप्त की स्मृति में उनके पुत्र रमेशराज द्वारा लिखी कविता----4.
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मानता हूं इस व्यवस्था के बहुत आहत थे तुम
इस लड़ाई में मगर मेरे लिये हिम्मत थे तुम।

तुमसे मुझ तक बहके आती थी कोई पावन नदी
मेरे जैसे समतलों को प्रेम के पर्वत थे तुम।

मैं न इस सच को कहूंगा तो कहेगा कौन फिर ?
घुप अंधेरे पर हुए इक नूर के दस्तखत थे तुम।



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पिता लोककवि रामचरन गुप्त की स्मृति में उनके पुत्र रमेशराज द्वारा लिखी कविता------5.
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हर तरह से सरल या आसान तुम जैसा कहाँ।
आजकल हर झूठ पर हैरान तुम जैसा कहाँ।

जि़न्दगी है बिन तुम्हारे कोठरी सीलन-भरी
अब खुला-सा धूप का दालान तुम जैसा कहाँ।

सैकड़ों हैं इस ज़ेहन में इस दुआ के शीर्षक
पर वफा का नाम या उन्वान तुम जैसा कहाँ।

हर अधर पर महंक उट्ठे जो किसी गुल की तरह
एक अमृत बूंद-सा मृदुगान तुम जैसा कहाँ।



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लोककवि रामचरन गुप्त की स्मृति में उनके पुत्र रमेशराज द्वारा लिखी कविता--6.
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खामोशियों के बीच में वाचाल मिलता कौन है
आप-सा दुःखदर्द में खुशहाल मिलता कौन है।

आज जैसा दौर है रिश्तों के रेगिस्तान में-
आप जैसों के अलावा ताल मिलता कौन है।

तीर या तलवार बनकर लोग जैसे जी रहे
तीर या तलवार पर अब ढाल मिलता कौन है।

आप थे तो लग रही थीं वादियां महंकी हुयी
फूलों-लदी खूशबू-भरी अब डाल मिलता कौन है।



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लोककवि रामचरन गुप्त की स्मृति में उनके पुत्र रमेशराज द्वारा लिखी कविता---7.
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आ गया है आज सांसों तक धुआँ कुछ तो कहो?
मन हमारा चीरतीं खामोशियां कुछ तो कहो?

खोलते हम द्वार जिनसे प्रेम के ताले लगे
वे कहां पर गुम हुई सब चाबियां कुछ तो कहो?

जि़न्दगी के वास्ते कुछ ढूंढ लाओ रोशनी
इस अंधेरे में सुनो तुम हो कहां, कुछ तो कहो?

हर व्यथा करने लगी मन को बहुत अन्तर्मुखी
हो न जाऊँ  अब कहीं मैं बेजुबां कुछ तो कहो?


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लोककवि रामचरन गुप्त की स्मृति में उनके पुत्र रमेशराज द्वारा लिखी कविता--8.
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नयन अपने बन गये बहती नदी तुम हो कहां
यह घुटन! यह यातना! यह त्रासदी!, तुम हो कहाँ।

यह हताशा, यह निराशा आप हों तो दूर हो
है सहारा बस तुम्हारा आज भी, तुम हो कहाँ।

मैं अंधेरों में भटकता तन्हा-तन्हा फिर रहा
दीप बनकर दो कभी तो रोशनी, तुम हो  कहाँ।

फिर तुम्हारा ब्यूह में यह आज अभिमन्यु घिरा
जि़न्दगी दुष्चक्र में घायल हुयी, तुम हो कहाँ?


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लोककवि रामचरन गुप्त की स्मृति में उनके पुत्र रमेशराज द्वारा लिखी कविता--9.
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प्रेम की पावन ऋचा का हाथ तुमने रख दिया
इस तरह सर पर दुआ का हाथ तुमने रख दिया।

वक्त की लू के थपेड़ों में घिरे हम जब कभी
उस समय ठंडी हवा का हाथ तुमने रख दिया।

आंख में वीरानियां थीं और जुबा खामोश थी
कंठ पर आकर सदा का हाथ तुमने रख दिया।

जख्म वह इस आत्मा का एक पल में भर गया
जिस जखम पर भी दवा का हाथ तुमने रख दिया।

मैं पड़ा था मूर्छित-सा मेरे मन के देवता
जिस्म पर नवचेतना का हाथ तुमने रख दिया।



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लोककवि रामचरन गुप्त की स्मृति में उनके पुत्र रमेशराज द्वारा लिखी कविता---10.
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हम हुए जब-जब भी मरुथल जिंदगी के दौर में
तुमको देखा बनते बादल, इसलिये तुम याद हो।

पाप की फसलें उगाने में लगे थे लोग जब
तुम बोये पुण्य के फल, इसलिये तुम याद हो।

जब सुलझ पायी न हमसे गुत्थियों-सी जि़न्दगी
तुम यकायक दे गये हल, इसलिये तुम याद हो।

देखकर पतझड़ का मौसम पेड़ रोये जब कभी
तुमने दे दीं उनको कोंपल, इसलिए तुम याद हो।


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लोककवि रामचरन गुप्त की स्मृति में उनके पुत्र रमेशराज द्वारा लिखी कविता---11.
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तुम क्यों हमको छोड़कर हमसे पहुंचे दूर
अब तो लगता हैं हमें गया आंख का नूर।

लौट दुबारा आते,
हम तुम साथ-साथ मुस्काते
तुमसे रहे जनम के नाते,
लाते उजियारे।

अजब उदासी छायी
कदम-कदम पर ठोकर खायी
तुम निन आंखों की बीनाई
आयी कब द्वारे?

तुम फूलों की डाली
तुमसे मधुवन की खुशहाली

तुम बिन बात सुगंधों वाली 
खाली मितवा रे।

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