Friday, March 25, 2016

संघर्षों की एक कथाः लोककवि रामचरन गुप्त +इंजीनियर अशोक कुमार गुप्त [ पुत्र ]





|| संघर्षों की एक कथाः लोककवि रामचरन गुप्त ||

+इंजीनियर अशोक कुमार गुप्त [ पुत्र ]
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    लोककवि रामचरन गुप्त 23 दिसम्बर 1994 को हमारे बीच नहीं रहे, लेकिन उनका चेतन रूप उनके सम्पर्क में आये उन सैकड़ों जेहनों को आलोकित किये है, जो इस मायावी, स्वार्थी संसार के             अंधेरों से वाकिफ हैं या जिनमें इस अंधेरे को खत्म करने की छटपटाहट है। ऐसे लोगों के लिए रामचरन गुप्त आज भी एक महापुरुष, एक महान आत्मा, संघर्ष के बीच जन्मी-पली-बढ़ी एक गौरव कथा हैं। वे एक स्वाभिमानी, ईमानदार और मेहनतकश जि़न्दगी की एक ऐसी मिसाल हैं  जिसका आदि और अन्त मरुथल के बीच एक भरा-पूरा वसंत माना जाए तो कोई अतिशियोक्ति न होगी।
श्री रामचरन गुप्त का जन्म अलीगढ़ के गांव एसीमें लाला गोबरधन गुप्त के यहां जनवरी सन् 1924 को एक बेहद निर्धन परिवार में हुआ। उनकी माताजी का नाम श्रीमती कलावती देवी था। पंडित ने जब उनकी जन्म कुंडली तैयार की तो उसमें लिखा कि यह बच्चा होनहार और विलक्षण शक्तियों से युक्त रहेगा। इसके ग्रहों के योग बताते हैं कि यह अपने माता-पिता की एकमात्र पुत्र संतान के रूप में रहेगा। श्री रामचरन गुप्त के कई भाई थे किंतु उनमें से एक भी जीवित न रह सका। श्री रामचरन गुप्त ने भाइयों का वियोग अपने पूरे होशोहवास में झेला और उनके मन पर भाइयों के मृत्युशोक की कई गहरी लकीरें खिंचती चली गयीं। भ्रात-दुःख की यह छाया उनकी कविताओं में स्पष्ट अनुभव की जा सकती है।
श्री रामचरन गुप्त सिर्फ कक्षा-2 तक अलीगढ के ग्राम-मुकुटगढ़ी के विद्वान, समाजसेवी, राष्ट्रभक्त मास्टर तोतारामजी द्वारा शिक्षित हुए। मास्टर तोताराम के सुशील और नेक संस्कारों की चर्चा वे अक्सर करते रहते थे। श्री गुप्त में विलक्षण प्रतिभा बाल्यकाल से ही थी। एक बार इंस्पेक्टर आॅफ स्कूल ने मुकुटगढ़ी बाल विद्यालय का निरीक्षण किया और बच्चों से तरह-तरह के सवाल किये। सारे बच्चों के बीच होनहार बालक गुप्त ने इस सलीके के साथ सारे प्रश्नों के उत्तर दिये कि इंस्पेक्टर आॅफ स्कूल अत्यंत प्रभावित हुए। वह इस होनहार बालक के पिता से मिले और उनसे इस बच्चे को गोद लेने तथा उच्च शिक्षा दिलाने की बात कही। लेकिन पिता ने उन्हें न तो इन्स्पेक्टर आॅफ स्कूल के साथ भेजा और न उसकी भावी शिक्षा की कोई व्यवस्था की। परिणामतः वे कक्षा-दो तक ही शिक्षा पा सके।
एक विलक्षण प्रतिभा का इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है कि शिक्षा की रोशनी उस तक न पहुंच सकी। यही नहीं परिस्थितियों ने उन्हें खेलने-कूदने की उम्र में ही एक सेठ के यहां बर्तन मांजने, कपड़े धोने पर मजबूर कर दिया। पर प्रतिभा का विलक्षण तत्त्व दबाने से भला कैसे दब सकता है? श्री गुप्त ने सेठ के यहां बर्तन मांजने और कपड़े धोने के दौरान, उसी के कारखाने में पता नहीं जाने कब, ताले बनाने का काम सीख लिया। जब सेठ को इस बात का पता चला तो वे बेहद खुश हुए। उन्होंने श्री गुप्त की पीठ ठोंकी और एक किलो घी पुरस्कार स्वरूप दिया। इस प्रकार श्री रामचरन गुप्त एक घरेलू नौकर की जगह ताले के कारीगर बन गये।
लगभग 16-17 वर्ष की उम्र में हारमोनियम-निर्माता श्री रामजीलाल शर्मा से श्री गुप्त का सम्पर्क हुआ। रामजीलाल शर्मा एक बेहतरीन हारमोनियम वादक और एक अच्छे गायक थे। परिणामस्वरूप श्री गुप्त में भी सांस्कृतिक गुणों का समावेश होने लगा। वह गायन और वादन की विद्या में निपुण हो गये। अन्य कवियों की कविताएं, गीत-भजन गाते-गाते वे स्वयं भी गीतों की रचना करने लगे। उनके प्रारम्भिक गीतों में ईश्वर-भक्ति का समावेश अनायास नहीं हुआ। इस भक्ति के मूल में उनकी निधर्नता, असहायता अर्थात् अभावों-भरी जि़न्दगी से मुक्त होने की छटपटाहट ने उन्हें ईशवन्दना की ओर उन्मुख किया।
    श्री रामचरन गुप्त के पिता को जब पुत्रा के इन कलात्मक गुणों की जानकारी हुई तो वे बेहद खुश हुए और उन्होंने अपने गीत-संगीत के शौकीन गांव एसी के ही साथी जसमन्ता बाबा के साथ उनको लोकगीतों की परम्परा से जोड़ दिया।
लगभग 20 वर्ष की उम्र में श्री गुप्त का विवाह कस्बा सोंख जिला मथुरा के सेठ बद्रीप्रसाद गुप्त की पुत्री गंगा देवी के साथ जून 1946 में संपन्न हुआ। उस वक्त श्री गुप्त एक ताले के कारीगर के स्थान पर ताले के एजेण्ट के रूप में 150/- प्रतिमाह पर कार्य करने लगे। उनके लिए एजेण्ट के रूप में यह काल इसलिए सुखद रहा, क्योंकि इसी दौरान उन्हें पूरे भारत वर्ष के भ्रमण का अवसर मिला। भारत-भ्रमण के दौरान उन्होंने भारतीय संस्कृति और सभ्यता का बारीकी से अध्ययन किया। उन्होंने क्रांतिकारियों के जीवन-चरित्र पढ़े। भगतसिंह, गांधी-नेहरू, सुभाषचन्द्र बोस आदि पर लिखी पुस्तकों को छान मारा?   
श्री रामचरन गुप्त को भारत से अतीत से बेहद लगाव थे। उनके मन में भारत के इतिहास को जानने की तीव्र लालसा थी, अतः वे जिस भी शहर में जाते, समय मिलते ही उस शहर की पुरातन सभ्यता की जानकारी के लिए किलों में या अन्य पुरातन स्थलों में खो जाते। भारत के राजा-महाराजाओं का इतिहास उन्हें ऐसे रट गया जैसे सबकुछ उन्हीं के सामने घटित हुआ हो।
मगर एजेन्ट का यह कार्य ज्यादा समय न चल सका। सेठ हजारीलाल का कारखाना फेल हो गया और श्री रामचरन गुप्त का भविष्य अंधकारमय। घर में सम्पन्नता की जगह पुनः विपन्नता ने ले ली। वे धंधे  या रोजी की तलाश में ठोकरें खाने लगे। उन्होंने अलीगढ़ के ही मौलवी साहब, शमशाद ठेकेदार, शमशुद्दीन और हाजी अल्लानूर आदि के यहां जगह-जगह काम किया, लेकिन इतना भी न कमा सके कि चैन से दो वक्त की रोटी खा सकें।
संघर्ष और अभावों-भरी जि़ंदगी की कड़वाहट ज्यों-ज्यों सघन होती गई, श्री गुप्त का काव्य-प्रेम त्यों-त्यों और बढ़ता गया। वे एक तरफ रोटी के लिये अथक परिश्रम करते, दूसरी तरफ जब भी समय मिलता, किसी न किसी नयी कविता का सृजन कर डालते। उन्होंने अपने गांव के ही जसवंता बाबा, नाथूराम वर्मा आदि के साथ जिकड़ी भजनों की शास्त्रीय परम्परा से युक्त मंडली का गठन कर लिया, जो फूलडोलों [आंचलिक लोकगीत सम्मेलन] में जाती। बाबा जसवंत ढोलक पर संगत देते और लाल खां फकीर तसला बजाते। कवि के रूप में मंडली की तरफ से श्री रामचरन गुप्त रहते।
सन् 1953 में श्री गुप्त यहां प्रथम पुत्र का आगमन चार दिन की भूखी मां [श्रीमती गंगा देवी] के पेट से हुआ, जिसका नाम रमेश रखा गया। उनका पुत्र भी विरासत में मिली कविता से भला अछूता कैसे रहता। यह पुत्र बचपन में संगीत और गायकी के लिये प्रसिद्ध  रहा और अब सुकवि रमेशराज के नाम से लगातार हिन्दी साहित्य की सेवा में रत है।
लोककवि रामचरन गुप्त के दूसरे पुत्र अशोक का जन्म 1958 में हुआ, जो इंजीनियर के रूप में आजकल सरकारी सेवा में नियुक्त है। इसके पश्चात् एक पुत्री  कुमारी मिथिलेश का जन्म दिसम्बर 1955 में हुआ, पंडित ने जिसका अन्नपूर्णा रखा और नाम रखते समय यह घोषणा की कि गुप्ताजी यह कन्या आपके घर में अन्न की पूर्ति करेगी।भविष्यवाणी सत्य साबित हुई और इस पुत्री  के जन्म के दो-तीन साल के भीतर लगभग यह स्थिति आ गयी कि परिवार को पेट-भर खाना मिलने लगा।
जब श्री गुप्त का कवि-कर्म भी ऊँचाइयां छूने लगा। वे अब अपने पिता और अपने गांव के ही लक्ष्मीनारायन टेलर, प्रहलाद टेलर, बफाती टेलर, गजराज सिंह, दलवीर सिंह, रामबहादुर, सुरेश, रीता गड़रिया, डोरी शर्मा, इंदरपाल शर्मा, बाबा जसवंता, सुबराती खां आदि के साथ फूलडोलों में  जिकड़ी भजनों को लिख कर ले जाते। श्री डोरीलाल शर्मा गुप्त के भजनों को गाने वाले प्रमुख गायक रहते। जसवंता बाबा ढोलक बजाते। शक्का फकीर तसला और भजनों के दोहराव या आलाप के लिए लक्ष्मी नारायण टेलर, दलवीर सिंह, प्रहलाद टेलर, सुरेश, इंदरपाल शर्मा आदि प्रमुख रूप से रहते थे। गजराज सिंह या श्री रामचरन गुप्त हारमोनियम को सम्हालते और तबले पर संगत देते लाल खां।
सन् 1960 से लेकर सन् 74 तक का समय श्री रामचरन गुप्त के कविकर्म का स्वर्णकाल था। इसी काल में उन्होंने ए रे रंगि दे रंगि दे रे’, ‘ए कुआरी रही जनकदुलारी’, सिय हिय बिन अधिक कलेशा’, ‘जूझि मरैगो कोई पंडवा’,‘ बिन श्याम सुहाग रचै ना’, ‘नाथूराम विनायक’, कैसौ देस निगोरा’, ‘जा मंहगाई के कारन’, ‘ए रे सीटी दै रई रे’, ‘सावन सूनौ नेहरू बिन’, ‘मेरी तरनी कूं तारौ तारनहार’, ‘वंशी वारे मोहना’, ‘राम भयौ बन गमन’, ‘कौने मारो पुत्र हमारौ’, ‘अड़ें हम डटि-डटि कैंजैसी कालजयी कविताओं का सृजन किया। यह रचनाएं बृज-क्षेत्र में आज भी काफी लोकप्रिय हैं।
श्री गुप्त का सन् 65 के करीब क्रांतिकारी कवि खेमसिंह नागर, पंडित भीमसेन शास्त्री , पंडित जगन्नाथ शास्त्री , पंडित रामस्व रूप शर्मा आदि विद्वानों से सम्पर्क हुआ और इस सम्पर्क को मित्रता में बदलते देर न लगी। वे क्रांतिकारी कवि खेमसिंह नागर के कहने पर कम्युनिस्ट पार्टी के मेम्बर बन गए और काफी समय तक कम्युनिस्ट पार्टी के लिए कार्य करते रहे। किंतु कम्युनिस्ट पार्टी के विरोधाभासों को देखते हुए वे धीरे-धीरे निष्क्रिय हो गये। नागरजी के सम्पर्क से इतना जरूर हुआ कि उनकी कविताएं ईश-भक्ति के साथ-साथ समाजोन्मुखी, यथार्थपरक और ओजमय होती चली गयीं।
सन् 1973 तक कविकर्म में निरंतर जुटे रहने का परिणाम यह हुआ कि श्री गुप्त काव्य के शास्त्रीय पक्ष के अच्छे ज्ञाता और महान वक्ता बन बैठे। वे अब फूलडोलों में निर्णांयक [जज] के रूप में आमंत्रित किये जाते। वे सिंगर्र, छाहरी, एसी, पला, बरौठ, पड़ील, देदामई, बिचैला आदि गांवों के फूलडोलों में निर्णांयक मंडल में सम्मिलत किये गये।
सन् 1973 में पुरा स्टेशन के पास गांव-बरेनी में एक ऐतिहासिक फूलडोल का आयोजन हुआ, जिसमें बृजक्षेत्र की 36 मंडलियाँ आयी। उन में से नौ मंडलियों के कवि हिन्दी साहित्य में पी.एचडी. किये हुए थे। इन 36 मंडलियों में से एक मंडली एसी गांव की भी थी, जिसके कवि के रूप में नायक श्री रामचरन गुप्त बने। बेरनी गांव के दंगल में उनके द्वारा रचित भजन मेरी तरनी कूं तारौ तारन हारतो अकाट्य रहा ही, श्री गुप्त ने उन 35 मंडलियों के भजनों को अपनी तर्कशक्ति से दोषपूर्ण प्रमाणित कर डाला। उस रात-भर में 35 मंडलियों के कवियों से तर्क-वितर्क के उपरांत सुबह निर्णांयक मण्डल ने उनकी मंडली को प्रथम पुरस्कार देने की घोषणा कर दी।
बेरनी गाँव के फूलडोल में जब लोककवि रामचरन गुप्त को श्रेष्ठ कवि के रूप में प्रथम पुरस्कार की घोषणा या उससे पूर्व तर्क-वितर्क को कुछ कवियों ने अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया और लाठी-बंदूक लेकर श्री गुप्त पर हमला करने के लिए तैयार हो गए। इस घटना को लेकर इनका मन दुःख और क्षोभ से भर उठा। श्री गुप्त पुरस्कार लेकर वापस अपने गांव तो जरूर चले आये लेकिन उन्होंने भविष्य में किसी फूलडोल में न जाने की कसम खा ली। यह एक कवि का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि बेरनी के दंगल ने उनके मन में इतनी घृणा भर दी कि वह अपने कविकर्म से ही विरत हो गए। मेरी तरनी कूं तारौ तारनहारउनकी श्रेष्ठ, पर अन्तिम कविता बनकर रह गयी।
सन् 1970-71 में उनका सम्पर्क दिल्ली के खुराना ब्रादर्सके मालिक वी.पी. खुराना से हुआ और उन्हें ठेके पर ताले बनवाने का काम सौंपा। श्री रामचरन गुप्त ने कविकर्म से अपना सारा ध्यान हटाकर गांव में ही एक-दो कारीगर रख कर ताला निर्माण में लगा दिया। इसका एक कारण यह भी था कि उनके दोनों पुत्र इस वक्त उच्च शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। उन्हें और शिक्षित कराने में ही उन्होंने अपनी समझदारी समझी। इसके बाद 1973-74 में उन्होंने अपना काम गांव एसी से हटाकर अलीगढ़ में ही डाल दिया। अब वे कारीगर से एक ताले के कारखाने के मालिक बन गये। इसी बीच 1973 में उनके यहां एक पुत्रा चन्द्रभान का जन्म और हुआ।
सन् 1975 में श्री रामचरन गुप्त ने अपना गांव एसी छोड़कर थाना सासनी गेट के पास ईसानगर अलीगढ़ में अपना एक मकान खरीद लिया। उसकी ऊपर की मन्जिल में वह सपरिवार के साथ रहते और नीचे की मन्जिल में कारखाना डाल दिया। सन् 75 से लेकर सन् 90 तक उन्होंने चतुरश्रेणी वेश्य समाज की सेवा में अपना तन-मन-धन  लगाया। वे इस संस्था के कोठारी भी रहे।
सन् 1989 में उन्होंने अपनी पुत्री  का विवाह बड़ी धूमधाम  से किया। विवाह करने के उपरांत उन्होंने उसी दिन स्वप्न देखा कि उनके हाथों में उल्लू है और वह उड़ने के लिए फड़पफड़ा रहा है। इस स्वप्न की चर्चा उन्होंने अपने परिवारजनों से की और कहा कि अब हमारे घर से लक्ष्मी  [श्री रामचरन गुप्त की पुत्री ] चली गयी। समय की लीला देखो कि इस स्वप्न के कुछ माह बाद ही खुराना ब्रादर्स से बिगाड़-खाता हो गया। पार्टी बेईमान हो गयी और श्री रामचरन गुप्त को कई लाख का घाटा दे दिया। घूमता पहिया जाम हो गया।
सन् 1990 के बाद सन् 94 तक का काल श्री गुप्त के लिए दुःख-तनाव और द्वन्द्वों का काल रहा। वह अस्वस्थ रहने लगे। उदररोग ने उन्हें बुरी तरह जकड़ लिया। अपने उपचार के लिये वे एक वैद्य से दस्तावर दवा ले आये, परिणामतः उन्हें इतने दस्त हुए कि उनके दोनों गुर्दे फेल हो गये। गुर्दे फेल होने के बावजूद वे मनोबल और साहस के साथ एक माह तक मुस्कराते हुए मौत के साथ आंख मिचैली का खेल खेलते रहे और 23 दिसम्बर 1994 को अपने बड़े पुत्रा रमेशराज की बांहों में सिर रखे हुए निर्विकार परम तत्त्व में विलीन हो गये।


‘लोककवि रामचरन गुप्त’ के यथार्थवादी ‘लोकगीत’





लोककवि रामचरन गुप्तके यथार्थवादी लोकगीत
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।। कपड़ा लै गये चोर ।।---1.
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ध्यान गजानन कौ करूं गौरी पुत्र महान
जगदम्बा मां सरस्वती देउ ज्ञान को दान।

जा आजादी की गंगा नहाबे जनता मन हरषायी है।।

पहली डुबकी दई घाट पै कपड़ा लै गये चोर
नंगे बदन है गयी ठाड़ी वृथा मचावै शोर
चोर पै कब कन्ट्रोल लगाई। या आजादी....

टोसा देखि-देखि हरषाये रामराज के पंडा
टोसा कूं हू खाय दक्षिणा मांगि रहे मुस्तंडा
पण्डा ते कछु पार न पायी है। जा आजादी....

भूखी नंगी फिरै पार पै लई महाजन घेर
एक रुपइया में दयौ आटौ आधा सेर
टेर-लुटवे की पड़ी सुनायी है। जा आजादी....

रामचरन कहि एसी वाले अरे सुनो मक्कार
गोदामों में अन्न भरि लयो, जनता की लाचार
हारते जाते लोग लुगाई है। जा आजादी........
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+लोककवि रामचरन गुप्त



|| नागों की फिरे जमात ||----2.
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भगवान आपकी दुनियां में अंधेर दिखाई दे
गुन्डे बेईमानों का हथफेर दिखायी दे ।

घूमते-फिरते डाकू-चोर, नाश कर देंगे रिश्वतखोर
जगह-जगह अबलाओं की टेर दिखायी दे।

नागों की फिरे जमात, देश को डसते ये दिन-रात
भाई से भाई का अब ना मेल दिखायी दे।

देश की यूं होती बर्बादी, धन के बल कुमेल हैं शादी
बाजारों में हाड-मांस का ढेर दिखायी दे।

घासलेट खा-खाकर भाई, दुनिया की बुद्धि बौरायी
रामचरन अब हर मति भीतर फेर दिखायी दे।
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+लोककवि रामचरन गुप्त



|| पढ़ाऊँ कैसे छोरा कूं ||----3.
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ऐरे चवन्नी भी जब नाय अपने पास, पढ़ाऊँ कैसे छोरा कूं?

किससे किस्से कहूं कहौ मैं अपनी किस्मत फूटी के
गाजर खाय-खाय दिन काटे भये न दर्शन रोटी के
एरे बिना किताबन के कैसे हो छटवीं पास, पढ़ाऊँ कैसे छोरा कूं?

पढि़-लिखि कें बेटा बन जावै बाबू बहुरें दिन काले
लोहौ कबहू पीटवौ छूटै, मिटैं हथेली के छाले
एरे काऊ तरियां ते बुझे जिय मन की प्यास, पढ़ाऊँ कैसे छोरा कूं?

रामचरन करि खेत-मजूरी ताले कूटत दिन बीते
घोर गरीबी और अभावों में अपने पल-छिन बीते
एरे जा महंगाई ने अधरन को लूटौ हास, पढ़ाऊँ कैसे छोरा कूं?
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+लोककवि रामचरन गुप्त



|| जनियो मत ऐसौ लाला ||----4.
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जननी जनियो तो जनियो ऐसी पूत, ए दानी हो या हो सूरमा।

पूत पातकी पतित पाप पै पाप प्रसारै
कुल की कोमल बेलि काटि पल-भर में डारै
कुल करै कलंकित काला
जनियो मत ऐसौ लाला।
जननी जनियो तो जनियो ऐसी पूत, ए दानी हो या हो सूरमा ||

सुत हो संयमशील साहसी
अति विद्वान विवेकशील सत सरल सज्ञानी
रामचरन हो दिव्यदर्श दुखहंता ज्ञानी
रहै सत्य के साथ, करै रवि तुल्य उजाला
जनियो तू ऐसौ लाला।
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+लोककवि रामचरन गुप्त



।। किदवई और पटेल रोवते।।-----5.
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जुल्म तैने ढाय दियो एरै नत्थू भइया
अस्सी साल बाप बूढ़े कौ बनि गयौ प्राण लिबइया।

भारत की फुलवार पेड़-शांति को उड़ौ पपइया
नजर न पड़े बाग कौ माली, सूनी पड़ी मढ़ैया।

आज लंगोटी पीली वालौ, बिन हथियार लड़ैया
अरिदल मर्दन कष्ट निवारण भारत मान रखैया।
आज न रहयौ हिन्द केसरी नैया को खिवैया

रामचरन रह गये अकेले अब न सलाह दिवैया
किदवई और पटेल रोवते, रहयौ न धीर  बधइया |
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+लोककवि रामचरन गुप्त




|| जा की छुक-छुक ||----6.
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एरे आयी-आयी है जिय नये दौर की रेल,
मुसाफिर जामें बैठि चलौ।

जा में डिब्बे लगे भये हैं भारत की आजादी के
भगतसिंह की कछू क्रान्ति के कछू बापू की खादी के
एरे जाकी पटरी हैं ज्यों नेहरू और पटेल,
 मुसाफिर जामें बैठि चलौ।।

जा की सीटी लगती जैसे इन्कलाब के नारे हों
जा की छुक-छुक जैसे धड़के फिर से हृदय हमारे हों
एरे जा के ऊपर तू सब श्रद्धा-सुमन उड़ेल,
मुसाफिर जामें बैठि चलौ।।

जाकौ गार्ड वही बनि पावै जाने कोड़े खाये हों
ऐसौ क्रातिवीर हो जाते सब गोरे थर्राये हों
एरे जाने काटी हो अंगरेजन की हर जेल,
मुसाफिर जामें बैठि चलौ।।

जामें खेल न खेलै कोई भइया रिश्वतखोरी के
बिना टिकट के, लूट-अपहरण या ठगई के-चोरी के
एरे रामचरन! छलिया के डाली जाय नकेल,
मुसाफिर जामें बैठि चलौ ||
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+लोककवि रामचरन गुप्त


लोककवि रामचरन गुप्त के दो गीत





|| लोककवि रामचरन गुप्त के दो गीत ||
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।। वियोगी ही रहेंगे ।।---1.
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आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे
आज से दो प्रेमयोगी बस वियोगी ही रहेंगे।

आयेगा मधुमास फिर भी छायेंगी श्यामल घटाएं
तुम नहीं हो साथ अपनी बात बिछुड़ें मन कहेंगे।

दूर हम मजबूर होंगे अब नयन से या मिलन से
इस व्यथा को इस कथा को हाय रे हम तुम सहेंगे

ध्यान रखना मीत मेरे नेह के बंधन न टूटें
हरिचरन तुम हो जो साथी रामचरन हम भी रहेंगे।



।। जीवन के दिन ।।----2.
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घड़ी-घड़ी नित घड़ी देखते काट रहा हूं जीवन के दिन
क्या सांसों को ढोते-ढोते ही बीतेंगे जीवन के दिन।

कभी जागते स्वप्न देखते रातें तो कट जाती हैं
पर कैसे पूरे हो पायेंगे मेरे ये जीवन के दिन।

गाज गिरे पर जगे चेतना प्राणहीन इस मन पाहन में
किसी तरह तो प्राणवान हों मेरे ये जीवन के दिन।

अब आंखों से दीवारों का होता है हर रोज सामना
भटक रहे हैं आज अंधेरे में मेरे ये जीवन के दिन।

हाय न पूरी हुयी कामना कुछ न हुआ भू गर्भ न फूटा
सुलग रहे ज्वालामुखि-से अब तक ये जीवन के दिन।

बाती बनकर जले कभी यह धुनी रुई-सी मधुर कल्पना

रामचरन उज्जवल प्रकाश दें तम में ये जीवन के दिन।

‘लोककवि रामचरन गुप्त’ का एक ‘बालगीत’





लोककवि रामचरन गुप्तका एक बालगीत
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|| हर आफत में मुस्कायेंगे ||

हम बच्चे मन के सच्चे हैं, रण में नहिं शीश झुकायेंगे
हम तूफानों से खेलेंगे,चट्टानों से टकरायेंगे।

वीर सुभाष भगत जिस आजादी को लेकर आये थे
उस आजादी की खातिर हम अपने प्राण गंवायेंगे।

हमने हर डायर को मारा, हम ऊधमसिंह बलंकारी
हम शेखर हिंद-सितारे हैं, हर आफत में मुस्कायेंगे।

हम रण में कब हिम्मत हारे, जो बुरी दृष्टि हम पर डारे
हम बच्चे हैं पर बलशाली, अरि का अभिमान मिटा देंगे

हे प्रभो तुम्हारी दया-दृष्टि जग में उजियारा फैलाती

रामचरन बन सूरज हम, जर्रा-जर्रा चमका देंगे।

लोककवि रामचरन गुप्त एक देशभक्त कवि + डॉ. रवीन्द्र भ्रमर






 लोककवि रामचरन गुप्त एक देशभक्त कवि 

- डॉ. रवीन्द्र भ्रमर
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       अलीगढ़ के एसीगांव में सन् 1924 . में जन्मे लोककवि रामचरन गुप्त ने अपनी एक रचना में यह कामना की है कि उन्हें देशभक्त कवि के रूप में मान्यता प्राप्त हो। यह कामना राष्ट्रीय आन्दोलन के उस परिवेश में उपजी, जिसमें स्वतंत्रता की मांग अत्यन्त प्रबल वेग में मुखर हो उठी थी। ब्रिटिश साम्राज्यवाद के शिकंजे में कसा देश शोषण-अन्याय और दमन का शिकार बना हुआ था। चारों ओर गरीबी, भुखमरी, जहालत और बीमारी का बोल-बाला था।
लोककवि रामचरन का जन्म साम्राज्यवादी शोषण के ऐसे ही राष्ट्रव्यापी अंधकार की छाया में हुआ। इनका बचपन बड़ी गरीबी में बीता था। किशोरवस्था में इन्होंने एक परिवार में बर्तन मांजने का काम भी किया। इसी के साथ-साथ ताले बनाना भी सीख लिया और आगे चलकर तालों का एक कारखाना भी लगाया। किन्तु कई कारणों से इसमें विशेष सफलता नहीं मिली। गोस्वामी तुलसीदास के शब्दों में डासत ही सब निसा बिरानी, कबहुं न नाथ नींद भर सोयौ’- जैसी अनवरत संघर्षमय परिस्थिति में, लगभग सत्तर वर्ष की अवस्था में इनका निधन हो गया।
कविवर अज्ञेय ने एक कविता में कहा है-‘दुःख सबको मांजता है और जिसे मांजता है, उसे तप्त कुन्दन जैसा खरा बना देता है। रामचरन गुप्त के संघर्षमय जीवन और संवेदनशील हृदय ने इन्हें कविता ओर उन्मुख किया। ये ज्यादा पढ़े-लिखे तो थे नहीं, अतः इनके व्यक्तित्व का विकास लोककवि के रूप में हुआ। दिन-भर मेहनत-मजदूरी करते, चेतना के जागृत क्षणों में गीत रचने-गुनगुनाते और रात में बहुधा फूलडोलोंमें जाते, जहां इनके गीत और जिकड़ी भजन बड़े चाव से सुने जाते थे। ये सच्चे अर्थों में एक सफल लोककवि थे। इन्होंने ब्रज की लोकरागिनी में सराबोर असंख्य कविताएं लिखीं जो किसी संग्रह में प्रकाशित नहीं होने के कारण अव्यवस्था के आलजाल में खो गईं।
लोककवि रामचरन गुप्त के सुपुत्र श्री रमेशराज ने इनकी कुछ कविताएं संजोकर रख छोड़ी हैं , जिनके आधार पर इनके कृतित्व का यथेष्ट मूल्यांकन सम्भव हो सका है। रमेशराज हिन्दी कविता की नयी पीढ़ी के एक सफल हस्ताक्षर हैं। इन्हें हिन्दी की तेवरी विधा का उन्नायक होने का श्रेय प्राप्त है। अतः इन पर यह दायित्व आता है कि ये अपने स्वर्गीय पिता की काव्य-धरोहर को सहेज-संभाल कर रखें और चयन-प्रकाशन तथा मूल्यांकन के द्वारा उसे उजागर कराएं।
लोकगीत की संरचना की विषय में एक धारणा यह है कि अगर कोई पूछे कि यह गीत किसने बनाया तो तुम कह देना कि वह दुःख के नीले रंग में रंगा हुआ एक किसान था। इसका आशय यह है कि लोकगीतों की रचना लोकजीवन की वेदना से होती है और इनका रचयिता प्रायः अज्ञात होता है। वह समूह में घुल-मिलकर समूह की वाणी बन जाता है। लोकगीत मौखिक परम्परा में जीवित रहते हैं और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक की यात्रा करते हैं।
लोकगीतों की एक कोटि यह भी मानी जाती है जिसकी रचना लोकभाषा और लोकधुनों में किसी ज्ञात और जागरूक व्यक्ति द्वारा की जाती है। लोककवि रामचरन गुप्त की रचनाएं लोककाव्य की इसी कोटि के अंतर्गत आती हैं। इन्होंने राष्ट्रीय, सामाजिक चेतना के कुछ गीतों के अतिरिक्त, मुख्यतः जिकड़ी भजनलिखे हैं। जिकड़ीभजनब्रज का एक अत्यन्त लोकप्रिय काव्यरूप है। इसमें भक्ति-भावना का स्वर प्रधान होता है और ये लोकगायकों की मंडलियों द्वारा गाये जाते हैं। ये मंडलियां आपस में होड़ बदकर, अपने-अपने जिकड़ी भजन प्रस्तुत करती हैं। गीतों में ही प्रश्नोत्तर होते हैं। जिस मंडली के उत्तर सार्थक और सटीक होते हैं, उसी की जीत होती है। रामचरन गुप्त को इस कला में महारत हासिल थी। ये जिस टोली में होते, विजय उसी की होती और जीत का सेहरा इनके सर बांधा  जाता था।
इस लोककवि की रचनाओं को भाव-सम्पदा की दृष्टि से तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। इनकी भाषा तो बोलचाल की परम्परागत ब्रजभाषा है। कहीं-कहीं खड़ी बोली की भी चाशनी दिखाई पड़ती है। शैली की दृष्टि से अधिकांश रचनाएं जिकड़ी भजन और कुछ रचनाएं प्रचलित लोकधुनों की पद्धति में रची गई हैं किन्तु भावानुभूति अथवा विषय की दृष्टि से इनका रचनाफलक विस्तृत है। कवि रामचरन गुप्त की रचनाओं की पहली श्रेणी राष्ट्रीयता की भावना से युक्त गीतों की है। इनमें स्वाधी नता-संग्राम की चेतना और स्वाधीनता के लिए बलि-पथ पर जाने वाले वीरों के साहस एवं ओज का मार्मिक वर्णन किया गया है।
राष्ट्र-प्रेम से भरे भाव की एक रचना के कुछ अंश द्रष्टव्य हैं-
ए रे रंगि दै रंगि दे रे वीरन रंगरेज, चुनरिया मेरी अलबेली।
पहलौ रंग डालि दइयो तू बिरन मेरे आजादी कौ,
और दूसरौ होय चहचहौ, इंकलाब की आंधी कौ,
ए रे घेरा डाले हों झांसी पै अंगरेज, चुनरिया मेरी अलबेली।
कितनी हिम्मत, कितना साहस रखतौ हिन्दुस्तान दिखा,
फांसी चढ़ते भगत सिंह के अधरों पै मुस्कान दिखा,
ए रे रामचरन कवि की रचि वतनपरस्त इमेज, चुनरिया मेरी अलबेली।
कवि की वतनपरस्त इमेजके सन्दर्भ में दो उदाहराण इस प्रकार हैं- इनमें भारत के वीर जवानों की वीरता, शक्ति और साहस का वर्णन बड़े मुखर स्वरों में किया गया है-
‘‘पल भर में दें तोड़ हम, दुश्मन के विषदन्त।
रहे दुष्ट को तेग हम और मित्र को संत।।
अरि के काटें कान
हम भारत के वीर जवान
न बोदौ हमकूं बैरी जान
अड़े हम डटि-डटि कें।
हर सीना फौलाद
दुश्मन रखियौ इतनी याद
मारौ हमने हर जल्लाद
लड़ें हम डटि-डटि कें।
    यह रचना भारत-पाक और भारत-चीन युद्ध के परिप्रेक्ष्य में रची गई थी।
स्वाधीनता प्राप्ति के बाद स्वाधीनता और देश की रक्षा का भाव रामचरन गुप्त की रचनाओं में दिखाई पड़ता है-
हम बच्चे मन के सच्चे हैं, रण में नहीं शीश झुकायेंगे,
हम तूफानों से खेलेंगे, चट्टानों से टकरायेंगे।
वीर सुभाष, भगत जिस आजादी को लेकर आये थे
उस आजादी की खातिर हम अपने प्राण गवायेंगे।
    इन उदाहरणों से विषदंत तोड़ना’, ‘कान काटना’, ‘सीना फौलाद होना’, ‘तूफानों से खेलना’, ‘चट्टानों से टकरानाइत्यादि मुहावरों के संयोग से वीरता और ओज की निष्पत्ति सहजरूप से हुई है। इससे कवि की भाषाशक्ति का पता चलता है।
दूसरी श्रेणी में सामाजिक सरोकार की रचनाएं आती हैं। कहीं महंगाई, चोरबाजारी और गरीबी की त्रासदी को उभारा गया है और कहीं वीरता, दानशीलता, संयम, साहस, विद्या, विनय और विवेक आदि जीवनमूल्यों को रचना-सूत्र में पिरोया गया है-
‘‘जा मंहगाई के कारन है गयो मेरौ घर बरबाद
आध सेर के गेहूं बिक गये, रहे हमेशा याद।
सौ रुपया की बलम हमारे
करहिं नौकरी रहहिं दुखारे
पांच सेर आटे कौ खर्चा, है घर की मरयाद।
पनपी खूब चोरबाजारी
कबहू लोटा, कबहू थारी
धीरे-धीरे सब बरतन लै गये पीठ पर लाद।।’’
उच्चतर जीवनमूल्यों के सन्दर्भ में एक यह रचना अवलोकनीय है, जिसमें कवि ने किसी जननी से ऐसे पुत्र को जन्म देने की अनुनय की है जो दानी हो या वीर हो-
‘‘जननी जनियौ तो जनियौ ऐसौ पूत, ए दानी हो या हो सूरमा।
सुत हो संयमशील साहसी
अति विद्वान विवेकशील सत् सरल सज्ञानी
रामचरन हो दिव्यदर्श दुखहंता दानी
रहै सत्य के साथ, करै रवितुल्य उजाला।
जनियो तू ऐसौ लाला।।’’
लोककवि रामचरन गुप्त का वास्तविक रूप इनके जिकड़ी भजनों में दिखाई पड़ता है। ऐसा प्रतीत होता है कि कठिन जीवन-संघर्ष ने इन्हें ईश्वरोन्मुख बना दिया था, इसे कवि की वतनपरस्ती का भी एक अंग माना जा सकता है क्योंकि देशभक्ति के अन्तर्गत देश की संस्कृति, आध्यात्मिक चेतना का भी विन्यास होता है। राष्टकवि मैथिलीशरण गुप्त की कृतियों के माध्यम से इस अवधारणा को भली प्रकार समझा जा सकता है। ध्यातव्य यह भी है-जिकड़ी भजनों का कथ्य और मूल स्वर धार्मिक ही होता है। अस्तु, रामचरन गुप्त के जिकड़ी भजनों में धार्मिक चेतना और भक्तिभावना यथेष्ट रूप में मुखरित हुई है।
इनकी इस कोटि की रचनाओं के दो वर्ग हैं। एक में रामावतार की आरती उतारी गई है तो दूसरे में कृष्णावतार का कीर्तन किया गया है।
रामकथा से सन्दर्भित दो उदाहरण दर्शनीय हैं-
‘‘राम भयौ वनगमन एकदम मचौ  अवध में शोर
रोक रहे रस्ता पुरवासी चलै न एकहू जोर।
त्राहि-त्राहि करि रहे नर-नारी
छोड़ चले कहां अवध बिहारी,
साथ चलीं मिथिलेश कुमारी और सौमित्र किशोर।
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श्री रामचन्द्र सीता सहित खड़े शेष अवतार
केवट से कहने लगे सरयू पार उतार।
जल में नाव न डारूं , नैया बीच न यूं बैठारूं
भगवन पहले चरण पखारूं, करूं तब पार प्रभू!
भाषा-कवियों में गोस्वामी तुलसीदास से लेकर पंडित राधेश्याम कथावाचक तक ने इन प्रसंगों का मार्मिक वर्णन किया है। रामचरन गुप्त भी इनमें अछूते नहीं रहे। कृष्णकथा के संदर्भ में इन्होंने भागवत आदि महाभारत के प्रसंगों को अनुस्यूत किया है। विनय भावना की इनकी एक रचना इस सन्दर्भ में दृष्टव्य है-
‘‘बंसी बारे मोहना, नंदनंदन गोपाल
मधुसूदन माधव सुनौ विनती मम नंदलाल।
आकर कृष्ण मुरारी, नैया करि देउ पार हमारी
प्रभु जी गणिका तुमने तारी, कीर पढ़ावत में।
वस्त्र-पहाड़ लगायौ, दुःशासन कछु समझि न पायौ,
हारी भुजा अन्त नहिं आयौ, चीर बढ़ावत में।’’
ब्रज में लोककवियों और लोकगायकों की एक परम्परा रही है। अलीगढ़ जनपद में नथाराम गौड, छेदालाल मूढ़, जगनसिंह सेंगर और साहब सिंह मेहरा जैसे रचनाकारों ने इसे आगे बढ़ाया है। इस लोकधर्मी काव्यपरम्परा में रामचरन गुप्त का स्थान सुनिश्चित है। राष्ट्रीय-सामाजिक चेतना के गीतों और जिकड़ी भजनों की संरचना में इनका योगदान सदैव स्वीकार किया जायेगा।