|| संघर्षों की एक कथाः लोककवि रामचरन
गुप्त ||
+इंजीनियर अशोक कुमार गुप्त [ पुत्र ]
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लोककवि रामचरन गुप्त 23 दिसम्बर 1994 को हमारे बीच नहीं रहे, लेकिन उनका चेतन रूप उनके सम्पर्क
में आये उन सैकड़ों जेहनों को आलोकित किये है, जो इस मायावी,
स्वार्थी संसार के
अंधेरों से वाकिफ हैं या जिनमें इस अंधेरे को खत्म करने की छटपटाहट है। ऐसे
लोगों के लिए रामचरन गुप्त आज भी एक महापुरुष, एक महान आत्मा,
संघर्ष के बीच जन्मी-पली-बढ़ी एक गौरव कथा हैं। वे एक स्वाभिमानी, ईमानदार और
मेहनतकश जि़न्दगी की एक ऐसी मिसाल हैं जिसका
आदि और अन्त मरुथल के बीच एक भरा-पूरा वसंत माना जाए तो कोई अतिशियोक्ति
न होगी।
श्री रामचरन गुप्त का जन्म अलीगढ़ के गांव ‘एसी’ में लाला गोबरधन गुप्त के यहां जनवरी सन् 1924
को एक बेहद निर्धन परिवार में हुआ। उनकी माताजी का नाम श्रीमती कलावती
देवी था। पंडित ने जब उनकी जन्म कुंडली तैयार की तो उसमें लिखा कि ‘यह बच्चा होनहार और विलक्षण शक्तियों से युक्त रहेगा। इसके ग्रहों के योग बताते
हैं कि यह अपने माता-पिता की एकमात्र पुत्र संतान के रूप में
रहेगा। श्री रामचरन गुप्त के कई भाई थे किंतु उनमें से एक भी जीवित न रह सका। श्री
रामचरन गुप्त ने भाइयों का वियोग अपने पूरे होशोहवास में झेला और उनके मन पर भाइयों
के मृत्युशोक की कई गहरी लकीरें खिंचती चली गयीं। भ्रात-दुःख
की यह छाया उनकी कविताओं में स्पष्ट अनुभव की जा सकती है।
श्री रामचरन गुप्त सिर्फ कक्षा-2 तक अलीगढ के ग्राम-मुकुटगढ़ी के विद्वान, समाजसेवी, राष्ट्रभक्त मास्टर तोतारामजी द्वारा शिक्षित
हुए। मास्टर तोताराम के सुशील और नेक संस्कारों की चर्चा वे अक्सर करते रहते थे। श्री
गुप्त में विलक्षण प्रतिभा बाल्यकाल से ही थी। एक बार इंस्पेक्टर आॅफ स्कूल ने मुकुटगढ़ी
बाल विद्यालय का निरीक्षण किया और बच्चों से तरह-तरह के सवाल
किये। सारे बच्चों के बीच होनहार बालक गुप्त ने इस सलीके के साथ सारे प्रश्नों के उत्तर
दिये कि इंस्पेक्टर आॅफ स्कूल अत्यंत प्रभावित हुए। वह इस होनहार बालक के पिता से मिले
और उनसे इस बच्चे को गोद लेने तथा उच्च शिक्षा दिलाने की बात कही। लेकिन पिता ने उन्हें
न तो इन्स्पेक्टर आॅफ स्कूल के साथ भेजा और न उसकी भावी शिक्षा की कोई व्यवस्था की।
परिणामतः वे कक्षा-दो तक ही शिक्षा पा सके।
एक विलक्षण प्रतिभा का इससे बड़ा दुर्भाग्य और
क्या हो सकता है कि शिक्षा की रोशनी उस तक न पहुंच सकी। यही नहीं परिस्थितियों ने उन्हें
खेलने-कूदने की उम्र में ही एक सेठ के यहां बर्तन मांजने,
कपड़े धोने पर मजबूर कर दिया। पर प्रतिभा का विलक्षण तत्त्व दबाने से
भला कैसे दब सकता है? श्री गुप्त ने सेठ के यहां बर्तन मांजने
और कपड़े धोने के दौरान, उसी के कारखाने में पता नहीं जाने कब,
ताले बनाने का काम सीख लिया। जब सेठ को इस बात का पता चला तो वे बेहद
खुश हुए। उन्होंने श्री गुप्त की पीठ ठोंकी और एक किलो घी पुरस्कार स्वरूप दिया। इस
प्रकार श्री रामचरन गुप्त एक घरेलू नौकर की जगह ताले के कारीगर बन गये।
लगभग 16-17 वर्ष की
उम्र में हारमोनियम-निर्माता श्री रामजीलाल शर्मा से श्री गुप्त
का सम्पर्क हुआ। रामजीलाल शर्मा एक बेहतरीन हारमोनियम वादक और एक अच्छे गायक थे। परिणामस्वरूप
श्री गुप्त में भी सांस्कृतिक गुणों का समावेश होने लगा। वह गायन और वादन की विद्या
में निपुण हो गये। अन्य कवियों की कविताएं, गीत-भजन गाते-गाते वे स्वयं भी गीतों की रचना करने लगे। उनके
प्रारम्भिक गीतों में ईश्वर-भक्ति का समावेश अनायास नहीं हुआ।
इस भक्ति के मूल में उनकी निधर्नता, असहायता अर्थात् अभावों-भरी जि़न्दगी से मुक्त होने की छटपटाहट ने उन्हें ईशवन्दना की ओर उन्मुख किया।
श्री रामचरन गुप्त के पिता को जब पुत्रा के इन कलात्मक गुणों की जानकारी हुई
तो वे बेहद खुश हुए और उन्होंने अपने गीत-संगीत के शौकीन गांव
एसी के ही साथी जसमन्ता बाबा के साथ उनको लोकगीतों की परम्परा से जोड़ दिया।
लगभग 20 वर्ष की उम्र
में श्री गुप्त का विवाह कस्बा सोंख जिला मथुरा के सेठ बद्रीप्रसाद गुप्त की पुत्री
गंगा देवी के साथ जून 1946 में संपन्न हुआ। उस वक्त श्री गुप्त
एक ताले के कारीगर के स्थान पर ताले के एजेण्ट के रूप में 150/- प्रतिमाह पर कार्य करने लगे। उनके लिए एजेण्ट के रूप में यह काल इसलिए सुखद
रहा, क्योंकि इसी दौरान उन्हें पूरे भारत वर्ष के भ्रमण का अवसर
मिला। भारत-भ्रमण के दौरान उन्होंने भारतीय संस्कृति और सभ्यता
का बारीकी से अध्ययन किया। उन्होंने क्रांतिकारियों के जीवन-चरित्र
पढ़े। भगतसिंह, गांधी-नेहरू, सुभाषचन्द्र बोस आदि पर लिखी पुस्तकों को छान मारा?
श्री रामचरन गुप्त को भारत से अतीत से बेहद लगाव
थे। उनके मन में भारत के इतिहास को जानने की तीव्र लालसा थी, अतः वे जिस भी शहर में जाते, समय मिलते ही उस शहर की
पुरातन सभ्यता की जानकारी के लिए किलों में या अन्य पुरातन स्थलों में खो जाते। भारत
के राजा-महाराजाओं का इतिहास उन्हें ऐसे रट गया जैसे सबकुछ उन्हीं
के सामने घटित हुआ हो।
मगर एजेन्ट का यह कार्य ज्यादा समय न चल सका। सेठ
हजारीलाल का कारखाना फेल हो गया और श्री रामचरन गुप्त का भविष्य अंधकारमय। घर में सम्पन्नता
की जगह पुनः विपन्नता ने ले ली। वे धंधे या
रोजी की तलाश में ठोकरें खाने लगे। उन्होंने अलीगढ़ के ही मौलवी साहब, शमशाद ठेकेदार, शमशुद्दीन और हाजी अल्लानूर आदि के यहां
जगह-जगह काम किया, लेकिन इतना भी न कमा
सके कि चैन से दो वक्त की रोटी खा सकें।
संघर्ष और अभावों-भरी जि़ंदगी की कड़वाहट ज्यों-ज्यों सघन होती गई,
श्री गुप्त का काव्य-प्रेम त्यों-त्यों और बढ़ता गया। वे एक तरफ रोटी के लिये अथक परिश्रम करते, दूसरी तरफ जब भी समय मिलता, किसी न किसी नयी कविता का
सृजन कर डालते। उन्होंने अपने गांव के ही जसवंता बाबा, नाथूराम
वर्मा आदि के साथ जिकड़ी भजनों की शास्त्रीय परम्परा से युक्त मंडली का गठन कर लिया,
जो फूलडोलों [आंचलिक लोकगीत सम्मेलन] में जाती। बाबा जसवंत ढोलक पर संगत
देते और लाल खां फकीर तसला बजाते। कवि के रूप में मंडली की तरफ से श्री रामचरन गुप्त
रहते।
सन् 1953 में श्री
गुप्त यहां प्रथम पुत्र का आगमन चार दिन की भूखी मां [श्रीमती
गंगा देवी] के पेट से हुआ, जिसका नाम रमेश
रखा गया। उनका पुत्र भी विरासत में मिली कविता से भला अछूता कैसे रहता। यह पुत्र बचपन
में संगीत और गायकी के लिये प्रसिद्ध रहा और
अब सुकवि रमेशराज के नाम से लगातार हिन्दी साहित्य की सेवा में रत है।
लोककवि रामचरन गुप्त के दूसरे पुत्र अशोक का जन्म
1958
में हुआ, जो इंजीनियर के रूप में आजकल सरकारी सेवा
में नियुक्त है। इसके पश्चात् एक पुत्री कुमारी
मिथिलेश का जन्म दिसम्बर 1955 में हुआ, पंडित ने जिसका अन्नपूर्णा रखा और नाम रखते समय यह घोषणा की कि ‘गुप्ताजी यह कन्या आपके घर में अन्न की पूर्ति करेगी।’ भविष्यवाणी सत्य साबित हुई और इस पुत्री के जन्म के दो-तीन साल के भीतर
लगभग यह स्थिति आ गयी कि परिवार को पेट-भर खाना मिलने लगा।
जब श्री गुप्त का कवि-कर्म भी ऊँचाइयां छूने लगा। वे अब अपने पिता और अपने गांव के ही लक्ष्मीनारायन
टेलर, प्रहलाद टेलर, बफाती टेलर,
गजराज सिंह, दलवीर सिंह, रामबहादुर, सुरेश, रीता गड़रिया,
डोरी शर्मा, इंदरपाल शर्मा, बाबा जसवंता, सुबराती खां आदि के साथ फूलडोलों में जिकड़ी भजनों को लिख कर ले जाते। श्री डोरीलाल शर्मा
गुप्त के भजनों को गाने वाले प्रमुख गायक रहते। जसवंता बाबा ढोलक बजाते। शक्का फकीर
तसला और भजनों के दोहराव या आलाप के लिए लक्ष्मी नारायण टेलर, दलवीर सिंह, प्रहलाद टेलर, सुरेश,
इंदरपाल शर्मा आदि प्रमुख रूप से रहते थे। गजराज सिंह या श्री रामचरन
गुप्त हारमोनियम को सम्हालते और तबले पर संगत देते लाल खां।
सन् 1960 से लेकर
सन् 74 तक का समय श्री रामचरन गुप्त के कविकर्म का स्वर्णकाल
था। इसी काल में उन्होंने ‘ए रे रंगि दे रंगि दे रे’,
‘ए कुआरी रही जनकदुलारी’, सिय हिय बिन अधिक कलेशा’,
‘जूझि मरैगो कोई पंडवा’,‘ बिन श्याम सुहाग रचै
ना’, ‘नाथूराम विनायक’, कैसौ देस निगोरा’,
‘जा मंहगाई के कारन’, ‘ए रे सीटी दै रई रे’,
‘सावन सूनौ नेहरू बिन’, ‘मेरी तरनी कूं तारौ तारनहार’,
‘वंशी वारे मोहना’, ‘राम भयौ बन गमन’,
‘कौने मारो पुत्र हमारौ’, ‘अड़ें हम डटि-डटि कैं’ जैसी कालजयी कविताओं का सृजन किया। यह रचनाएं
बृज-क्षेत्र में आज भी काफी लोकप्रिय हैं।
श्री गुप्त का सन् 65 के करीब क्रांतिकारी कवि खेमसिंह नागर, पंडित भीमसेन
शास्त्री , पंडित जगन्नाथ शास्त्री , पंडित
रामस्व रूप शर्मा आदि विद्वानों से सम्पर्क हुआ और इस सम्पर्क को मित्रता में बदलते
देर न लगी। वे क्रांतिकारी कवि खेमसिंह नागर के कहने पर कम्युनिस्ट पार्टी के मेम्बर
बन गए और काफी समय तक कम्युनिस्ट पार्टी के लिए कार्य करते रहे। किंतु कम्युनिस्ट पार्टी
के विरोधाभासों को देखते हुए वे धीरे-धीरे निष्क्रिय हो गये।
नागरजी के सम्पर्क से इतना जरूर हुआ कि उनकी कविताएं ईश-भक्ति
के साथ-साथ समाजोन्मुखी, यथार्थपरक और ओजमय
होती चली गयीं।
सन् 1973 तक कविकर्म
में निरंतर जुटे रहने का परिणाम यह हुआ कि श्री गुप्त काव्य के शास्त्रीय पक्ष के अच्छे
ज्ञाता और महान वक्ता बन बैठे। वे अब फूलडोलों में निर्णांयक [जज] के रूप में आमंत्रित
किये जाते। वे सिंगर्र, छाहरी, एसी,
पला, बरौठ, पड़ील,
देदामई, बिचैला आदि गांवों के फूलडोलों में निर्णांयक
मंडल में सम्मिलत किये गये।
सन् 1973 में पुरा
स्टेशन के पास गांव-बरेनी में एक ऐतिहासिक फूलडोल का आयोजन हुआ,
जिसमें बृजक्षेत्र की 36 मंडलियाँ आयी। उन में
से नौ मंडलियों के कवि हिन्दी साहित्य में पी.एचडी. किये हुए थे। इन 36 मंडलियों में से एक मंडली एसी गांव
की भी थी, जिसके कवि के रूप में नायक श्री रामचरन गुप्त बने।
बेरनी गांव के दंगल में उनके द्वारा रचित भजन ‘मेरी तरनी कूं
तारौ तारन हार’ तो अकाट्य रहा ही, श्री
गुप्त ने उन 35 मंडलियों के भजनों को अपनी तर्कशक्ति से दोषपूर्ण
प्रमाणित कर डाला। उस रात-भर में 35 मंडलियों
के कवियों से तर्क-वितर्क के उपरांत सुबह निर्णांयक मण्डल ने
उनकी मंडली को प्रथम पुरस्कार देने की घोषणा कर दी।
बेरनी गाँव के फूलडोल में जब लोककवि रामचरन गुप्त
को श्रेष्ठ कवि के रूप में प्रथम पुरस्कार की घोषणा या उससे पूर्व तर्क-वितर्क को कुछ कवियों ने अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया और लाठी-बंदूक लेकर श्री गुप्त पर हमला करने के लिए तैयार हो गए। इस घटना को लेकर इनका
मन दुःख और क्षोभ से भर उठा। श्री गुप्त पुरस्कार लेकर वापस अपने गांव तो जरूर चले
आये लेकिन उन्होंने भविष्य में किसी फूलडोल में न जाने की कसम खा ली। यह एक कवि का
दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि बेरनी के दंगल ने उनके मन में इतनी घृणा भर दी कि वह अपने
कविकर्म से ही विरत हो गए। ‘मेरी तरनी कूं तारौ तारनहार’
उनकी श्रेष्ठ, पर अन्तिम कविता बनकर रह गयी।
सन् 1970-71 में
उनका सम्पर्क दिल्ली के ‘खुराना ब्रादर्स’ के मालिक वी.पी. खुराना से हुआ
और उन्हें ठेके पर ताले बनवाने का काम सौंपा। श्री रामचरन गुप्त ने कविकर्म से अपना
सारा ध्यान हटाकर गांव में ही एक-दो कारीगर रख कर ताला निर्माण
में लगा दिया। इसका एक कारण यह भी था कि उनके दोनों पुत्र इस वक्त उच्च शिक्षा ग्रहण
कर रहे थे। उन्हें और शिक्षित कराने में ही उन्होंने अपनी समझदारी समझी। इसके बाद 1973-74
में उन्होंने अपना काम गांव एसी से हटाकर अलीगढ़ में ही डाल दिया। अब
वे कारीगर से एक ताले के कारखाने के मालिक बन गये। इसी बीच 1973 में उनके यहां एक पुत्रा चन्द्रभान का जन्म और हुआ।
सन् 1975 में श्री
रामचरन गुप्त ने अपना गांव एसी छोड़कर थाना सासनी गेट के पास ईसानगर अलीगढ़ में अपना
एक मकान खरीद लिया। उसकी ऊपर की मन्जिल में वह सपरिवार के साथ रहते और नीचे की मन्जिल
में कारखाना डाल दिया। सन् 75 से लेकर सन् 90 तक उन्होंने चतुरश्रेणी वेश्य समाज की सेवा में अपना तन-मन-धन लगाया।
वे इस संस्था के कोठारी भी रहे।
सन् 1989 में उन्होंने
अपनी पुत्री का विवाह बड़ी धूमधाम से किया। विवाह करने के उपरांत उन्होंने उसी दिन
स्वप्न देखा कि उनके हाथों में उल्लू है और वह उड़ने के लिए फड़पफड़ा रहा है। इस स्वप्न
की चर्चा उन्होंने अपने परिवारजनों से की और कहा कि अब हमारे घर से लक्ष्मी [श्री रामचरन गुप्त की पुत्री ] चली गयी। समय की
लीला देखो कि इस स्वप्न के कुछ माह बाद ही खुराना ब्रादर्स से बिगाड़-खाता हो गया। पार्टी बेईमान हो गयी और श्री रामचरन गुप्त को कई लाख का घाटा
दे दिया। घूमता पहिया जाम हो गया।
सन् 1990 के बाद
सन् 94 तक का काल श्री गुप्त के लिए दुःख-तनाव और द्वन्द्वों का काल रहा। वह अस्वस्थ रहने लगे। उदररोग ने उन्हें बुरी
तरह जकड़ लिया। अपने उपचार के लिये वे एक वैद्य से दस्तावर दवा ले आये, परिणामतः उन्हें इतने दस्त हुए कि उनके दोनों गुर्दे फेल हो गये। गुर्दे फेल
होने के बावजूद वे मनोबल और साहस के साथ एक माह तक मुस्कराते हुए मौत के साथ आंख मिचैली
का खेल खेलते रहे और 23 दिसम्बर 1994 को
अपने बड़े पुत्रा रमेशराज की बांहों में सिर रखे हुए निर्विकार परम तत्त्व में विलीन
हो गये।